मंगलवार, 21 मई 2013

क्या खापें वाकई खलनायक हैं

खापें। खलनायक हैं। पुरातनपंथी हैं। अमानवीय हैं। कुछ ऐसी ही धारणा बन चुकी है। सही या गलत। इसपर विचार करने का न तो किसी के पास समय है और न ही कोई इसकी जहमत उठाना चाहता है। कौन साला ( या साली) एसी से निकल कर खापों को समझने के लिए गांवों में जाए। धूल फांके। पसीने पसीने हो। सो बेहतर है। अपनी अधकचरी जानकारी के आधार पर उनकी बात को खारिज कर दो। उन्हें गरियाओ। और प्रगतिशीलता का सुविधाजनक लिहाफ ओढ़कर सो जाओ। हर बात पर स्वस्थ बहस का स्वागत करने वाले भी इस पर बहस को तैयार नहीं। दरअसल खापों की बात रखने वालों उनके स्तर के होते ही नहीं। उनकी निगाह में। सच तो यह है कि खाप विरोधी अंग्रेजींदां लोग का मानसिक स्तर ऐसा होता है कि खापों के बारे में उनसे बहस करना हमारी देसज भाषा में चूतियापे का काम है। सो मैं न तो उनसे बहस करना चाहता हूं न ही उनपर अपने विचार थोपना चाहता हूं। मैं तो सिर्फ और सिर्फ उन लोगों से रूबरू हूं जो इस देस की माटी की भावनाओं को महसूसते हैं। प्यार करते हैं और सार्वजनिक रूप से उसका इजहार करते हैं। पिछले एक दशक में खापों पर यह आरोप लगाया गया कि वे ऑनरकिलिंग की समर्थक हैं। हालांकि ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है। मैं यह स्वीकार करता हूं कि गांव की बेटी अपनी बेटी। गोती गोती भाई भाई जैसी सामाजिक मर्यादाओं को तोड़ते हुए विवाह करने वाले जोड़ों की हत्याएं हुईं। यह जघन्य अपराध था। है। लेकिन ऐसा करने के लिए किसी खाप ने फरमान नहीं सुनाया। इस तरह की हर घटना में युवती के परिवार वाले ही संलिप्त पाए गए। फिर इसका दोष खापों को क्यों। क्या इसलिए कि खाप सामाजिक मर्यादाओं की समर्थक हैं। रेप की घटनाएं बढ़ीं तो खापों की तरफ से बात उठी कि कन्या का विवाह 15 की उम्र में कर दिया जाना चाहिए। हंगामा हो गया। खापों की तुलना मोहम्मद तुगलक से की जाने लगीं। बगैर यह सोचे कि इसके पीछे खापों की सोच क्या है। बगैर यह समझे कि पुलिस रिकार्ड मे दर्ज होने वाले रेप केसों में 90 फीसदी रेप के केस होते ही नहीं। सिर्फ दस फीसदी केस वाकई रेप के होते हैं जिनमें पीड़ित कोई बच्ची होती है या कोई अकेली महिला। यह भी रेखांकित कर लें कि अबोध बच्चियों के साथ दरिंदगी करने वाला तो अकेला वहशी हो सकता है लेकिन वयस्क महिला के साथ एक व्यक्ति अकेले रेप करे यह नामुमिकन ही है। हां हथियार का भय दिखाकर करता है तो और बात है। इसीलिए ज्यादातर घटनाएं गैंगरेप की होती हैं। तो साहिबान। कद्रदान। यह बात 24 कैरेट सोने की तरह सत्य है कि 15 होते होते किशोरियों में किशोरों के शरीर में हारमोंस के कारण जो त्वरित परिवर्तन आते हैं, उनके ताप से उनकी देह तपने लगती है। टीवी- अखबार वाले कामसूत्र से मूड्स बना कर इसे और भड़का देते हैं तो जापानी तेल लगाने की सलाह देकर अनवांटेड का सहारा लेकर मोस्टवांडेड बना देते हैं। नतीजा। छोटी सी लव स्टोरी शुरू होती है और फिर एक दिन दरोगा जी थाने में रेप,अपहरण और जान से मारने की धमकी देने जैसी आईपीसी की धाराओं को परिभाषित करते हुए प्रेमी का इंटरव्यू ले रहे होते हैं। तो, अगर इस स्थित से बचने के लिए उसी उम्र में शादी का मशविरा खापें अगर देती हैं, जिस उम्र में देह को देह की सर्वाधिक जरूरत होती है तो क्या बुरा है। ज्यादा नहीं दो दशक पहले तक ऐसा ही होता भी था। गांवों में अब भी होता है। शहरों में नहीं। क्योंकि यहां अभिभावकों को बच्चों की शारीरिक मानसिक जरूरतों से ज्यादा उनके करियर की चिंता होती है। दरअसल वे खुद जिंदगी जी नहीं रहे होते बल्कि ढो रहे होते हैं सो उन्हें भी लगता है कि बच्चा जिंदगी ढोने लायक बन जाए। और इस लायक बनने में बच्चे बच्चे नहीं रह जाते, सीधे बूढ़े हो जाते हैं। मेरा सवाल है कि क्या शादी करियर की राह में रोड़ा है। बच्चा शादी के बाद क्यों नहीं पढ़ सकता। बच्ची ससुराल में जाकर अपने सपनों को पंख क्यों नहीं लगा सकती। दोनों संयुक्त रूप से एक साथ रहते हुए। खाते हुए। खेलते हुए। अपने फ्यूचर की प्लानिंग क्यों नहीं कर सकते। कर सकते हैं। करते भी हैं। सफल भी होते हैं। लेकिन वही जिनके मां बाप प्रगतिशीलों की निगाह में पुरातनपंथी होते हैं। दरअसल कथित प्रगतिशील भीतर से खुद इस भावना से ग्रस्त होते हैं कि उनकी बेटी को ससुराल में अवसर नहीं मिलेंगे। क्योंकि अपनी बहू को वे अवसर देना नहीं चाहते। उनकी सोच इतनी संकीर्ण होती है, वे मानते हैं कि बहू आकर बेटे का ध्यान भंग कर देगी। हुजूरे आला बहू आकर बेटे का ध्यान केंद्रित कर देगी। अन्यथा बेटे का ध्यान तो एक नहीं कई कई गर्लफ्रेंड में पहले से ही बंट रहा होता है। अब अंतिम बात। अगर किसी युवक युवती का विवाह 20 की उम्र में होता है और वे 23-24 में पिता-मां बन जाते हैं तो 40-45 तक होते होते वे दादा दादी बन जाएंगे। खुदा न करे उनके बेटे के साथ कोई अनहोनी हो जाए। लेकिन होती भी है तो दादा दादी उसे पाल पोस कर बड़ा ही नहीं कर देंगे बल्कि मां बाप की कमी भी नहीं महसूस होने देंगे। लेकिन जब आप शादी ही 35 पार होकर करेंगे तो रिटायरमेंट तक उनकी ही चिंता में लगे रहेंगे। अपनी जिंदगी जी ही नहीं पाएंगे। पहले अपने करियर की चिंता फिर बच्चों के। और कहीं आप हादसे का शिकार हो गए तो बच्चे का भविष्य क्या होगा। क्योंकि भारतीय संस्कारों वाली मां या पिता अकेला भी संभाल लेगा पर प्रगतिशील मां या पिता तो सेकेंडशादी डॉटकॉम पर सर्च मारकर जिंदगी को फिर से ढोना शुरू कर देगा। बच्चा क्या करेगा। माली हालत के मुताबिक या तो होस्टल में रहेगा या ढाबे पर प्लेट धोएगा। सो भइया जी खाप के मशविरे पर इस नजरिए से भी सोचें।