रविवार, 5 अक्तूबर 2014

अक्टूबर की रात में अलाव की ऊष्मा का आनंद

हिमांशु द्विवेदी। हिंदी के देश के टॉपटेन अखबारों में से एक हरिभूमि के मैनेजिंग एडिटर। उनसे पहली बार जनवरी 2005 में मिला था। मिला क्या था, बस नमस्ते का आदान-प्रदान हुआ था। वह छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के साथ दैनिक जागरण के दफ्तर में आए थे। मुख्यमंत्री के दफ्तर आने का मैंने जायज फायदा उठाया और उनका इंटरव्यू कर डाला। उसके बाद भी दो बार भेंट हुई। फोन पर बात तो होती ही रहती है। अभी शुक्रवार को उनकी किताब हाथ लग गई। अलाव। यह उनके लिखे संपादकीय आलेखों और उनके द्वारा लिए गए साक्षात्कारों का संकलन है। रूटीन की तरह रात दो बजे घर पहुंचा तो पन्ने पलटने शुरू किए। पढ़ने की शुरुआत की तो पूरा ही पढ़ता चला गया। उनके लेखन से अवगत होने के बाद लगा कि हिमांशु जितने अच्छे इंसान हैं, उतने ही बेहतरीन लेखक और खबरनवीस भी। हालांकि इसमें मुझे कोई आश्चर्यजनक अनुभूति नहीं हुई। क्योंकि मेरा मानना है, जो अच्छा इंसान होगा, वह किसी भी क्षेत्र में हो। अच्छा ही करेगा। अच्छा करना प्रकृति होती है। प्रवृत्ति तो बदली जा सकती है, पर प्रकृति नहीं बदलती। क्योंकि वह तो प्रकृति प्रदत्त होती है। लेकिन अपनी तो प्रवृत्ति ही नहीं बदलती है। जैसे, मौका मिलते ही लोगों की आंख बचाकर होंठों में सुर्ती दबा लेने की और अच्छी किताब मिलते ही पूरा पढ़ डालने की। दशकों से सोच रहा हूं दोनों प्रवृत्तियों को बदल डालने के बार में, लेकिन टीवी पर बार-बार बदल डालो का विज्ञापन देखने के बाद भी नहीं बदल पाया। सो, रात दो बजे से अलाव की आंच से मानसिक ऊष्मा लेने का सिलसिला शुरू हुआ तो सुबह सात बजे तक चलता रहा। नींद का बलिदान तो होना ही था। क्योंकि अच्छी चीज हासिल करने लिए उसका मूल्य तो चुकाना ही पढ़ता है। पहले आलेख में कांची कामकोटि के शंकराचार्य को हत्या के मामले में फंसा कर उन्हें जेल भेजे जाने पर जयललिता की तार्किक लानत मलामत थी। सरल, किंतु तीखी भाषा में। पूरी रवानी के साथ। मैं पढ़ता जा रहा था और सोचता जा रहा था, जयललिता के उस जुल्म को। एकबारगी यह बात जेहन में आ गई कि आज जयललिता भले ही आय से अधिक संपत्ति के मामले में जेल गई हों, पर कहीं न कहीं शंकराचार्य के प्रति किए गए अपराध का प्रतिफल भी ईश्वर उन्हें दे रहा है। उसके बाद कोई भी पन्ना नहीं बचा, जो न पढ़ा हो। विद्याचरण शुक्ल से लेकर श्यामाचरण शुक्ल तक और अजीत जोगी से लेकर चंद्रशेखर साहू तक। प्रमोद महाजन की मौत से जूझने की बात हो नक्सलियों के समर्पण पर हुआँ हुआं करने वालों को जवाब। जब संजय सिंह के इंटरव्यू पर पहुंचा तो एकबारगी अपनी अमेठी के राजपरिवार में मौजूदा दौर में चल रहा संघर्ष दिमाग में कौंध गया। यह इंटरव्यू उस समय लिया गया था, जब संजय सिंह अपने पुत्र की बारात लेकर छत्तीस गढ़ गए थे। आज पिता पुत्र आमने सामने हैं। पुत्र अपनी मां के हक के लिए आवाज उठा रहा है तो वही संजय सिंह अपने समधियाने पर पुत्र को भड़काने का आरोप लगा रहे हैं। उस इंटरव्यू में संजय सिंह ने अपने समधी को राजनीतिक रूप से मजबूत होने की कामना जताई थी। हालांकि संजय सिंह के इंटरव्यू के बाद भी एक इंटरव्यू था। प्रह्लाद पटेल का। मैंने सोचा छोड़ो, अब इसे क्या पढ़ना। फिर याद आया। अरे यह तो वही प्रह्लाद पटेल हैं जिन्हें भाजपा ने सन 89 में टिकट देकर वापस ले लिया था। फिर भी वे मैदान में डटे रहे और जनता दल प्रत्याशी को हराकर सांसद बन गए। दरअसल, उन्हें पार्टी ने चुनाव निशान आवंटित कर दिया था। बाद में जनता दल से समझौते के तहत पटेल से मैदान से हट जाने के लिए कहा, पटेल नहीं माने। लड़े और जीते। पटेल की छवि मेरे मन में नायक की थी। सो, उनके बारे में पढ़ने का मोह कैसे छोड़ता। पढ़ लिया। उसके बाद एक तेज तरार्र मुंहफट सांसद से बात थी। वह भी पढ़ ली। अब किताब खत्म हो चुकी थी। लेकिन अभी साढ़े छह ही बज रहे थे। सात बजे उठता हूं। अब आधे घंटे क्या सोना? फिर भीतर के कवर पेज पर छपा लेखक का परिचय पढ़ लिया। उसके बाद फिर से शुरुआत की। वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव और विश्वनाथ सचदेव की लिखी प्रस्तावनात्मक टिप्पणियों को पढ़ा। हिमांशु द्विवेदी की अपनी बात पढ़ी। जब कुछ नहीं बचा तो उठकर किचन में चला गया। बच्चों के लिए नाश्ता तैयार करने।

रविवार, 21 सितंबर 2014

न जाने किस पर बात विवाद हो जाए

कल अध्यक्ष भइया मिल गए। वैसे ही थे जैसे अरसे से नजर आ रहे हैं। करुणानिधि की तरह खूबसूरत और जयललिता की तरह क्षुब्ध। साथ में भाभी जी भी थीं। योगेंद्र यादव की तरह विनम्र और ममता बनर्जी की तरह धाराप्रवाह भाषणक्षमता से भरपूर। मैं जरा जल्दी में था। कुशलक्षेम के बाद तुरंत बोला-कुछ बयान वयान तो नहीं भेजा है। दफ्तर जा रहा हूं। अध्यक्ष ने मन मसोसते हुए कहा-नहीं तुम्हारी भाभी जी ने मना कर दिया है। मैंने प्रश्न वाचक नजरों से भाभी जी को देखा। वह बोलीं-क्या बयान दें। न जाने किस बात पर विवाद खड़ा हो जाए। इसके पहले कि मैं कुछ बोलता-भाभी जी ने अपने बोलने की रफ्तार और इशांत शर्मा के बाउंसर से भी ज्यादा तेज कर दी। मेरी हालत थर्ड अंपायर जैसी हो गई। भाभी जी ने अपनी अांखों को हाउज दैट जैसी स्टाइल में निकाला। बोलीं-कोई अगर कह दे कि ढंग के कपड़े पहने तो विवाद हो जाता है। फिर वह बहस का मुद्दा बन जाता है। चैनल पर बहस चलने लगती है। पत्रकार बुला लिए जाते हैं। असली पत्रकार नहीं हाशिए पर पड़े पत्रकार। असली पत्रकारों को तो इतनी फुर्सत भी नहीं होती कि जब तक पत्नियां तलाक की धमकी न दें, उन्हें दैहिक सुख भी नहीं उपलब्ध कराते। घुमाना फिराना और खिलाना पिलाना दो दूर की बात। हाशिए वाले पत्रकार खाली होते हैं। सो उनके लिए यह मुफीद होता है। इनमें कुछ दाहिने वाले हाशिए पर पड़े होते हैं तो कुछ बाएं वाले हाशिए। स्लीवलेस और क्लीवेज दिखाने वाले भारतीय परिधान पहने एंकर भारतीय संस्कृति की दुहाई देते हुए ऐसे एेसे तर्क देने लगती है कि हमारे संस्कारों का बेड़ा गर्क होते नजर आता है। क्या तर्क है-बुराई कपड़ों में नहीं नजर में होती है। अगर मुझे जवाब देना हो तो कह दूं कि ताला भले आदमियों के लिए लगाया जाता है। चोरों के लिए नहीं। चोर तो कैसा भी ताला हो खोल ही लेगा। जिसकी नजर गंदी है, उसे अगर गंदा काम करना होगा तो कर ही डालेगा। आप बुलेट प्रूफ कच्छी क्यों न पहने हो। सलीके के कपड़े इसलिए पहने जाते हैं, ताकि हमारे इनके जैसे लोगों की नजर न गंदी हों और हमें इनपर नजर न रखनी पड़े। मैंने अचानक उनकी बात को काटने का प्रयास किया। वैसे ही जैसे भारतीय बैट्समैन ऑफ स्टम्प से बाहर जाती गेंदों पर बल्ला अड़ा देते हैं। बोला-तो क्या आप भइया पर नजर रखती हो। उसके बाद वही हुआ जो होना था। कैच और आउट। भाभी जी मुस्करा उठीं-नजर तो तुम पर भी रखनी पड़ती है। अपने लैपटॉप की हिस्ट्री डिलीट कर दिया करो।

बुधवार, 17 सितंबर 2014

उत्तर प्रदेश के चुनावों में इसलिए हारी भाजपा

उपचुनावों के दौरान भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को सिर्फ 12 सीटें मिलीं। निश्चित रूप से परिणाम भाजपा की अपेक्षा के अनुकूल नहीं हैं। लेकिन वास्तविकता यह भी नहीं है कि लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार से निराश हो चुके हैं। लोगों का मोदी से मोहभंग नहीं हुआ है। मोदी उनकी निगाह में आज भी नायक हैं। तो भाजपा हारी क्यों। बाकी प्रदेशों में क्या कारण रहे होंगे। मैं नहीं जानता। क्योंकि मैं वातानुकूलित कक्ष में बैठकर लिखने वाला धाकड़ लिक्खाड़ नहीं हू। मेरे ज्ञान चक्षु ऐसे नहीं हैं कि जहां के बारे में न जानता हूं, जहां के राजनीतिक वातावरण से परिचित न हूं, वहां के बारे में भी इस तरह दावे करूं, इस तरह लिखूं कि जैसे मैंने उस क्षेत्र के लोगों की सोच, समस्याओं और अपेक्षाओं के बारे में पीएचडी कर रखी हो। इसलिए मैं केवल उत्तर प्रदेश के बारे में बात करूंगा। उत्तर प्रदेश में भाजपा को तीन और समाजवादी पार्टी को आठ सीटें मिली हैं। जिन तीन सीटों पर भाजपा जीती है, तीनों शहर की सीटे हैं। शहर की सीटों पर सपा केवल वहीं जीत पाती है, जहां मुस्लिम आबादी तीस प्रतिशत से ज्यादा हो। वैसी स्थिति में सपा प्रत्याशी को मुस्लिम मतों के साथ यादव मतों का सहारा मिल जाता है। हालांकि आजमगढ़, एटा, इटावा और मैनपुरी को छोड़ दें तो उत्तर प्रदेश के किसी भी शहर में यादवों की आबादी तीन फीसदी से ज्यादा नहीं है। पर मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में मतो के बंटवारे के कारण लगभग 33 फीसदी मत हासिल कर सपा प्रत्याशी जीत जाता है। उन शहरों में जहां मुस्लिम आबादी बीस से पचीस फीसदी है अगर वहां सपा वैश्य प्रत्याशी पर दांव लगाती है तो उसे सफलता मिल जाती है। रही बात ग्रामीण सीटों की तो इस बार सपा और भाजपा दोनों ने जातीय समीकरणों को ध्यान में रख प्रत्याशी उतारे थे। उदाहरण के लिए रोहनिया और निघासन। दोनों जगह दोनों पार्टियों के उम्मीदवार कुर्मी थे। सपा उम्मीदवार को यादव और मुस्लिम वोट टूटकर पड़े। कुर्मी वोटों का बंटवारा हुआ। सवर्ण मतदाताओं में बड़ी संख्या में लोग यह सोचकर मत देने नहीं गए कि इस चुनाव से कोई असर नहीं पड़ने वाला है। जो वोट देने चले भी गए , उनके घर की महिलाओं ने जाने की जहमत उठाना मुनासिब नहीं समझा। ऐसा लगभग हर सीट पर हुआ। जाहिर है भाजपा प्रत्याशियों को तो हारना ही था। लेकिन सिर्फ यही कारण नहीं। भाजपा प्रत्याशियों की हार का सबसे बड़ा कारण दूसरा है। यह सर्वकालिक कारण है और भाजपा की हार में हमेशा प्रमुख भूमिका में रहता है। भाजपा में भाजपा के कार्यकर्ता शायद ही पांच प्रतिशत से ज्यादा हों। हर कार्यकर्ता जिले के किसी नेता का है। जिले का हर नेता भाजपा के किसी प्रादेशिक नेता का कार्यकर्ता है। हर प्रादेशिक नेता किसी राष्ट्रीय नेता से जुड़ा है। और उत्तर प्रदेश में तो राष्ट्रीय नेताओं की फौज है। लेकिन इन राष्ट्रीय और प्रादेशिक नेताओं में बामुश्किल पांच ऐसे हैं जो लोकसभा या विधानसभा का चुनाव अपने दम पर जीत सकते हों। जनाधार विहीन नेताओं की इतनी लंबी फौज है कि हर विधानसभा क्षेत्र में दस दस टिकट के दावेदार होते हैं। हर खेमा अपने कार्यकर्ता को टिकट दिलाने के लिए साम दाम दंड भेद सारे अस्त्र अपनाता है। फिर जो टिकट हासिल कर लेता है उसे हराने के लिए बाकी खेमे के कार्यकर्ता सारे हथकंडे अपनाते हैं। वे यह तो चाहते हैं कि सरकार भाजपा की बने लेकिन हमारे क्षेत्र का उम्मीदवार हार जाए। जहां का उम्मीदवार मजबूत होता है उनसे पार पाकर जीत जाता है। जहां थोड़ा भी कमजोर हुआ हार जाता है। लोकसभा चुनावों में मोदी ने अपील की थी कि आपका हर वोट सीधा मुझे मिलेगा, मतदाताओं ने उम्मीदवार नहीं देखे। मोदी को सीधे वोट किया। मोदी का आभामंडल ऐसा था कि चाहकर भी विरोधी खेमे के नेता उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाए। सो दिखावे के लिए ही सही। प्रचार में जुटे रहे। विधानसभा के उपचुनावों में ऐसा नहीं था।

मंगलवार, 16 सितंबर 2014

ताकि मैं फिर न रोऊं

दो खबरों ने आज बहुत दुखी किया। दोनों आत्महत्या की। गुजरात में आठवीं कक्षा में पढ़ने वाले एक बच्चे ने तो पंजाब में एक छात्रा ने जान दे दी। दोनों ही घटनाओं में सुसाइड नोट मिला है। बच्चे ने जहां अपने शारीरिक शिक्षक के उत्पीड़न का जिक्र करते हुए लिखा.. ‘पापा, मेरी आखिरी इच्छा है कि आप पीटी वाले अर्जुन सर के गाल पर 10-20 थप्पड़ मारना’। इतना ही नहीं, बच्चे ने जिस पेन से सुसाइड नोट लिखा, उसी पेन से अपने हाथ पर टीचर का नाम (अर्जुन) भी लिख रखा था। छात्रा ने लिखा है- मुझे माफ करना पिताजी। आपने मेरी फीस देने के लिए घर की कनक (गेहूं) बेची है। मैं मरने जा रही हूं। मैं आप पर बोझ नहीं बनना चाहती। इन दोनों खबरों को पढ़ने के बाद बहुत देर तक रोता रहा। सोचता रहा। ये सिलसिला कब रुकेगा। कैसे रुकेगा। रुक सकता है। एक बात जो मैं अभिभावकों से कहना चाहता हूं। सूरत शहर में रहने वाले कक्षा आठ के छात्र ने अपनी जान इस वजह से दे दी क्योंकि उसकी शारीरिक शिक्षक उसकी अनायास पिटाई करता था। सूरत के इस बच्चे की नजर में भले ही शारीरिक शिक्षक की पिटाई अनायास रही हो लेकिन मेरा मानना है कि शिक्षक जो भी करता था सायास करता था। शारीरिक शिक्षा ऐसा विषय नहीं है जिसमें होमवर्क करना पड़ता हो कुछ याद करना पड़ता हो। शिक्षक बच्चे से कुछ और चाहता रहा होगा। बच्चा तो बेचारा बच्चा ठहरा। जब अति हो गई तो उसने खुद को खत्म करने के लिए फैसला कर लिया। उस शिक्षक को फांसी होनी चाहिए। इससे कम कोई सजा नहीं। इस दुखद घटना से उन अभिभावकों को भी सचेत होना पड़ेगा, जिनके बच्चे स्कूल जाते हैं। ध्यान दें कि आज स्कूल गुरुकुल नहीं है और उनके शिक्षक ऋषि नहीं हैं। निजी स्कूलों के ज्यादातर शिक्षक -शिक्षिकाएं वे युवक और युवतियां जिनका बौद्धिक स्तर ऐसा नहीं रहा कि पढ़लिख कर कुछ बन सकें। सो बेरोजगारी दूर करने के लिए निजी स्कूलों में नौकरी कर ली। शिक्षिकाओं को प्रबंधन के लोग शोषण करते हैं तो शिक्षक बच्चियों का, बच्चों का। ऐसी घटनाओं के समाचार रोज छपते हैं। दुखद तो यह है कि इस तरह के समाचारों को पढ़कर भी हम सबक नहीं लेते। बच्चा स्कूल जाने लगे तो उससे रोज बात करें। खासतौर से स्कूल के माहौल पर। उसके शिक्षक-शिक्षिकाओं के बारे में। उनके आचरण के बारे में। इतना हीं नहीं। अपने मित्रों, पड़ोसियों, रिश्तोंदारों के व्यवहार और आचरण के बारे में भी उससे चर्चा करें। पूछें। कौन उसे अच्छा लगता है। कौन खराब है। अच्छा लगता है तो क्यों। उसे गुड टच बैड टच यानी स्नेहिल स्पर्श और कुटिल स्पर्श के अंतर के बारे में बताएं। निस्संकोच और बेझिझक होकर। अगर उस बच्चे के साथ अभिभावकों ने संवादहीनता न बरती होती तो मासूम जान देने का फैसला न लेता। और मुझे रोना न पड़ता। अब एक बात बच्चियों से डाइट में ईटीटी का कोर्स कर रही जालंधर में रहने वाली जिस बेटी ने जान दी, उससे कहना चाहता हूं। उसके जरिए हर बेटी से कहना चाहता हूं। तुमने मां बाप की मजबूरी देख खुद को खत्म कर लिया। क्यों। पढ़ने के बाद नौकरी मिलती। नहीं मिलती। तुमने खुद को बोझ क्यों समझा। तुम्हें तो सहारा समझना बनना चाहिए थे। बहुत सी बेटियां ट्यूशन कर मां बाप की मदद करती हैं। तुम भी वैसा ही कुछ सोचती। तुमने सिर्फ इसलिए जान दे दी कि मां ने घर में रखा वह गेहूं बेच दिया जो सरकार गरीब परिवारों को देती है। अब खांएगे क्या। बाप मजदूरी करता है। मजबूर है। तो तुम क्यों मजबूर हो गई। नहीं तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। तुम्हें संघर्ष का रास्ता अख्तियार करना चाहिए था। पलायन का नहीं। मेरी बच्ची तुमने बहुत गलत किया। पर मेरी बच्चियों आप कभी ऐसा न सोचना। ताकि मैं फिर कभी न रोऊं।

बुधवार, 16 अप्रैल 2014

प्रियंका ने किसी के कहने पर वरुण पर बोला हमला

प्रियंका गांधी और वरुण गांधी में बीते दिनों जो जुबानी जंग हुई,उसकी शुरुआत बेशक प्रियंका ने की, लेकिन ऐसा करने के लिए उन्हें (प्रियंका को) किसी ने मजबूर किया था। वह शख्स कौन है जिनसे सोनिया परिवार डरता है। हालांकि यह डर भी सोनिया परिवार की प्रतिष्ठा से ही जुड़ा हुआ है। परिवार को डर है कि उस शख्स के विरोध की वजह से राहुल गांधी कहीं चुनाव हार न जाएं। कौन हैं वह वह शख्स हैं अमेठी के मानद राजा और अभी कुछ दिन पहले ही कांग्रेस की तरफ से असम में राज्यसभा भेजे गए डॉ.संजय सिंह। कांग्रेस ने अमेठी से संभावित हार के खतरे को देखते हुए ही राजा साहब को असम से राज्यसभा भेजा। जबकि वह सुल्तानपुर से कांग्रेस के टिकट पर पिछला लोकसभा चुनाव जीते थे और इस बार भी उन्हें टिकट मिलना ही था। लेकिन राजा साहब यह भांप गए कि अगर सुल्तानपुर से भाजपा के टिकट पर वरुण गांधी लड़ेंगे तो उनकी हार सुनिश्चत है। सो उन्होंने अपने समर्थकों की अमेठी में एक मीटिंग बुलाई। कांग्रेस की कमियां गिनाईं। अपने विश्वस्त सूत्रों को बताया कि वह राहुल के खिलाफ अमेठी से भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ेंगे। सबने हामी भर दी। राजा साहब की मीटिंग की चर्चा अखबारों में हुआ। वह भाजपा के टिकट पर राहुल को चुनौती देंगे। साथ में यह भी कि भाजपा ने उन्हें टिकट देने के लिए भी हामी भर दी है, पर राजा साहब चाहते हैं कि हारने पर उन्हें भाजपा राज्यसभा भेजे। सोनिया परिवार तक यह खबर पहुंची तो परिवार भयाक्रांत हो गया। कहीं राजा साहब जीत गए तो राहुल का सियासी करियर ही खत्म हो जाएगा। परिवार का डर भी लाजिमी था क्योंकि राजा साहब 98 के लोकसभा चुनाव में परिवार के खासमखास कैप्टन सतीश शर्मा को अमेठी से मात दे चुके थे। 99 में सोनिया से हारने के बाद भी काफी दिनों तक भाजपा में रहे फिर कांग्रेस में चले गए। पिछले लोकसभा चुनाव में सुल्तानपुर से टिकट मांगा। बीते कई चुनावों से सुल्तानपुर सीट पर चौथे नंबर पर आ रही कांग्रेस के पास कोई गंभीर दावेदार भी नहीं था। हालांकि कांग्रेस नेताओं के एक बड़े वर्ग ने इसका विरोध किया। लेकिन उनके पुराने कांग्रेसी मित्रों ने परिवार से यह कहकर टिकट दिला दिया कि सुल्तानपुर की सीट तो वैसे ही अपने पास नहीं आनी है। सो शहीद होने के लिए राजा साहब कौन बुरे हैं। और अगर किसी तरह जीत भी गए तो कांग्रेस के खाते में एक सीट बढ़ ही जाएगी। परिवार ने राजा साहब को टिकट दे दिया। गजब यह हुआ कि राजा साहब जीत गए। बड़े अंतर से जीत गए। परिवार चौक गया। उसे लगा कि सुल्तानपुर अमेठी में वाकई राजा साहब का जनाधार है। आगे अगली पोस्ट में

गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

एक नेता होना जरूरी है


चुनाव का समय है। भारतीय जनता पार्टी की तरफ से प्रधानमंत्री पद के लिए नामित उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के पक्ष में भाजपा ही नहीं बल्कि लाखों ऐसे लोग भी उतर आए हैं। जिन्होंने कभी भाजपा को वोट नहीं दिया था। वे कहते भी हैं कि भाजपा को केवल वोट इसलिए देंगे क्योंकि प्रधानमंत्री पद के लिए उनकी पहली पसंद मोदी हैं। मोदी के आलोचक बार बार इस मुद्दे को उठाते हुए कहते हैं कि किसी व्यक्ति का पार्टी से बड़ा हो जाना खतरनाक है। दिलचस्प बात यह है कि भाजपा को आगाह करने वाले उसके ये शुभेच्छु हमेशा से भाजपा विरोधी रहे हैं। हां कुछ ऐसे हैं जो अभी तक पार्टी में थे पर अब पार्टी छोड़ चुके हैं। लेकिन उनको पार्टी की चिंता इसलिए सताने लगी है कि उन्हें पसंदीदा जगह से टिकट नहीं मिला। तमाम मोदी विरोधियों को यह कष्ट है कि उनके इतने हमलों के बावजूद मोदी दिनोंदिन लोकप्रिय क्यों होते जा रहे हैं। शायद हमलावरों को मालूम नहीं कि इसका सबसे बड़ा कारण वे खुद हैं। अपने हमलों से वे मोदी को लोकप्रिय बना रहे हैं। उनका प्रचार कर रहे हैं। मोदी कैसे प्रधानमंत्री साबित होंगे। यह भविष्य बताएगा। लेकिन लगातार तीन चुनाव जीतकर वह यह साबित कर चुके हैं कि वह अच्छे मुख्यमंत्री हैं और उनके पास विजन है। दरअसल, मोदी को आगे लाना भाजपा की मजबूरी थी। हालांकि भाजपा के दो और मुख्यमंत्रियों शिवराज चौहान और रमन सिंह का प्रदर्शन भी कमतर नहीं है। यह भी हो सकता था कि पार्टी सामूहिक नेतृत्व में चुनाव लड़ती और प्रधानमंत्री पद पर चयन जीते हुए सांसद करते। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। और अगर होता तो मेरी इस बात को रेखांकित कर लें कि भाजपा सत्ता में आना तो दूर शायद मुख्य विपक्षी दल भी न बन पाती। बगैर नेता घोषित हुए कोई भी फौज जीत नहीं हासिल कर सकती। नेता तो जरूरी है। कैसा भी हो। उसमें अच्छाइयां होंगी। कुछ बुराइयां भी होंगी। लेकिन नेता होना जरूरी है। आप पूरी दुनिया में देख लें। अमेरिका में नेता पहले घोषित हो जाता है। अमेरिका ही क्यों हर देश की राजनीतिक पार्टियां किसी न किसी नेता के नेतृत्व में ही मैदान में उतरती हैं। देश में देख लें वही पार्टियां सफल हैं जिनका कोई एक घोषित नेता है। सोनिया,मुलायम सिंह, ममता, बादल, जयललिता, मायावती, आदि आदि। वामपंथ का आधार सिकुड़ते जाने का कारण उसका सामूहिक नेतृत्व ही है। त्रिपुरा जहां उनकी सरकार है वह माणिक सरकार के कारण है। पश्चिम बंगाल में जो कुछ था ज्योति बसु की वजह से था जो उनके हटने के बाद खत्म हो गया और बंगाल में ममता आ गईं। मेरा आशय सिर्फ इतना है कि किसी भी पार्टी का कितना भी मजबूत संगठन क्यों न हो। एक नेता होना अनिवार्य। एक नेता। कई नहीं। कई हों लेकिन उस नेता का नेतृत्व स्वीकार करने वाले।

शुक्रवार, 28 मार्च 2014

मौत एक गुलमोहर की


कुछ लोग गुलमोहर की तरह होते हैं। प्यारे। बिंदास जिंदगी जीने वाले। सबको अपना बना लेने वाले। मेरे एक छोटे भाई आदर्श ऐसे ही थे। प्यारे। दुलारे। सनी। लेकिन ऐसे लोग बड़े निर्मम होते हैं। हमें असमय ही छोड़ जाते हैं। सनी भी छोड़ गए। समझ में नहीं आता जो सबसे प्यार करता था वह बेवफाई क्यों कर गया। दिक्कत तो यह है कि ऐसे गुलमोहर खुद तो निर्मम होते ही हैं,उनसे भी ज्यादा निर्मम उनकी यादें होती हैं। हम उन्हें लाख भूलने की कोशिश करें। भूल ही नहीं पाते। यादें पीछा ही नहीं छोड़तीं। माया मोह का बंधन कुछ ऐसा ही है। हमारे देश में बहुत से कथित संत माया मोह को मिथ्या बताते हैं। इनसे दूर रहने की बात करते हैं। मुझे लगता है कि वे झूठे हैं। हकीकत में वे झूठे हैं। कोई उनसे पूछे कि यदि मोह न हो तो पशु पक्षी अपने बच्चों को क्यों पालें। अपने हिस्से का भोजन उन्हें क्यों दे। उनकी सुरक्षा की चिंता क्यों करें। जाहिर है कि यह संसार माया मोह पर ही टिका है। मोह खत्म। संसार खत्म। अगर माया मोह मिथ्या है तो यक्ष युधिष्ठिर से यह प्रश्न क्यों करता कि संसार का सबसे बड़ा दुख क्या है और युधिष्ठिर के इस जवाब संतुष्ट क्यों होता कि पिता का पुत्र की अर्थी को कंधा देना। इसी से साबित हो जाता है कि मोह ही इस संसार के जीवित रहने का सबसे बड़ा कारण हैं। जिंदगी की तमाम खुशियां मोह के कारण ही मिलती हैं तो तमाम दुखों का कारण भी मोह है।