रविवार, 21 सितंबर 2014
न जाने किस पर बात विवाद हो जाए
कल अध्यक्ष भइया मिल गए। वैसे ही थे जैसे अरसे से नजर आ रहे हैं। करुणानिधि की तरह खूबसूरत और जयललिता की तरह क्षुब्ध। साथ में भाभी जी भी थीं। योगेंद्र यादव की तरह विनम्र और ममता बनर्जी की तरह धाराप्रवाह भाषणक्षमता से भरपूर। मैं जरा जल्दी में था। कुशलक्षेम के बाद तुरंत बोला-कुछ बयान वयान तो नहीं भेजा है। दफ्तर जा रहा हूं। अध्यक्ष ने मन मसोसते हुए कहा-नहीं तुम्हारी भाभी जी ने मना कर दिया है। मैंने प्रश्न वाचक नजरों से भाभी जी को देखा। वह बोलीं-क्या बयान दें। न जाने किस बात पर विवाद खड़ा हो जाए। इसके पहले कि मैं कुछ बोलता-भाभी जी ने अपने बोलने की रफ्तार और इशांत शर्मा के बाउंसर से भी ज्यादा तेज कर दी। मेरी हालत थर्ड अंपायर जैसी हो गई। भाभी जी ने अपनी अांखों को हाउज दैट जैसी स्टाइल में निकाला। बोलीं-कोई अगर कह दे कि ढंग के कपड़े पहने तो विवाद हो जाता है। फिर वह बहस का मुद्दा बन जाता है। चैनल पर बहस चलने लगती है। पत्रकार बुला लिए जाते हैं। असली पत्रकार नहीं हाशिए पर पड़े पत्रकार। असली पत्रकारों को तो इतनी फुर्सत भी नहीं होती कि जब तक पत्नियां तलाक की धमकी न दें, उन्हें दैहिक सुख भी नहीं उपलब्ध कराते। घुमाना फिराना और खिलाना पिलाना दो दूर की बात। हाशिए वाले पत्रकार खाली होते हैं। सो उनके लिए यह मुफीद होता है। इनमें कुछ दाहिने वाले हाशिए पर पड़े होते हैं तो कुछ बाएं वाले हाशिए। स्लीवलेस और क्लीवेज दिखाने वाले भारतीय परिधान पहने एंकर भारतीय संस्कृति की दुहाई देते हुए ऐसे एेसे तर्क देने लगती है कि हमारे संस्कारों का बेड़ा गर्क होते नजर आता है। क्या तर्क है-बुराई कपड़ों में नहीं नजर में होती है। अगर मुझे जवाब देना हो तो कह दूं कि ताला भले आदमियों के लिए लगाया जाता है। चोरों के लिए नहीं। चोर तो कैसा भी ताला हो खोल ही लेगा। जिसकी नजर गंदी है, उसे अगर गंदा काम करना होगा तो कर ही डालेगा। आप बुलेट प्रूफ कच्छी क्यों न पहने हो। सलीके के कपड़े इसलिए पहने जाते हैं, ताकि हमारे इनके जैसे लोगों की नजर न गंदी हों और हमें इनपर नजर न रखनी पड़े। मैंने अचानक उनकी बात को काटने का प्रयास किया। वैसे ही जैसे भारतीय बैट्समैन ऑफ स्टम्प से बाहर जाती गेंदों पर बल्ला अड़ा देते हैं। बोला-तो क्या आप भइया पर नजर रखती हो। उसके बाद वही हुआ जो होना था। कैच और आउट। भाभी जी मुस्करा उठीं-नजर तो तुम पर भी रखनी पड़ती है। अपने लैपटॉप की हिस्ट्री डिलीट कर दिया करो।
बुधवार, 17 सितंबर 2014
उत्तर प्रदेश के चुनावों में इसलिए हारी भाजपा
उपचुनावों के दौरान भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को सिर्फ 12 सीटें मिलीं। निश्चित रूप से परिणाम भाजपा की अपेक्षा के अनुकूल नहीं हैं। लेकिन वास्तविकता यह भी नहीं है कि लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार से निराश हो चुके हैं। लोगों का मोदी से मोहभंग नहीं हुआ है। मोदी उनकी निगाह में आज भी नायक हैं। तो भाजपा हारी क्यों। बाकी प्रदेशों में क्या कारण रहे होंगे। मैं नहीं जानता। क्योंकि मैं वातानुकूलित कक्ष में बैठकर लिखने वाला धाकड़ लिक्खाड़ नहीं हू। मेरे ज्ञान चक्षु ऐसे नहीं हैं कि जहां के बारे में न जानता हूं, जहां के राजनीतिक वातावरण से परिचित न हूं, वहां के बारे में भी इस तरह दावे करूं, इस तरह लिखूं कि जैसे मैंने उस क्षेत्र के लोगों की सोच, समस्याओं और अपेक्षाओं के बारे में पीएचडी कर रखी हो। इसलिए मैं केवल उत्तर प्रदेश के बारे में बात करूंगा। उत्तर प्रदेश में भाजपा को तीन और समाजवादी पार्टी को आठ सीटें मिली हैं। जिन तीन सीटों पर भाजपा जीती है, तीनों शहर की सीटे हैं। शहर की सीटों पर सपा केवल वहीं जीत पाती है, जहां मुस्लिम आबादी तीस प्रतिशत से ज्यादा हो। वैसी स्थिति में सपा प्रत्याशी को मुस्लिम मतों के साथ यादव मतों का सहारा मिल जाता है। हालांकि आजमगढ़, एटा, इटावा और मैनपुरी को छोड़ दें तो उत्तर प्रदेश के किसी भी शहर में यादवों की आबादी तीन फीसदी से ज्यादा नहीं है। पर मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में मतो के बंटवारे के कारण लगभग 33 फीसदी मत हासिल कर सपा प्रत्याशी जीत जाता है। उन शहरों में जहां मुस्लिम आबादी बीस से पचीस फीसदी है अगर वहां सपा वैश्य प्रत्याशी पर दांव लगाती है तो उसे सफलता मिल जाती है। रही बात ग्रामीण सीटों की तो इस बार सपा और भाजपा दोनों ने जातीय समीकरणों को ध्यान में रख प्रत्याशी उतारे थे। उदाहरण के लिए रोहनिया और निघासन। दोनों जगह दोनों पार्टियों के उम्मीदवार कुर्मी थे। सपा उम्मीदवार को यादव और मुस्लिम वोट टूटकर पड़े। कुर्मी वोटों का बंटवारा हुआ। सवर्ण मतदाताओं में बड़ी संख्या में लोग यह सोचकर मत देने नहीं गए कि इस चुनाव से कोई असर नहीं पड़ने वाला है। जो वोट देने चले भी गए , उनके घर की महिलाओं ने जाने की जहमत उठाना मुनासिब नहीं समझा। ऐसा लगभग हर सीट पर हुआ। जाहिर है भाजपा प्रत्याशियों को तो हारना ही था। लेकिन सिर्फ यही कारण नहीं।
भाजपा प्रत्याशियों की हार का सबसे बड़ा कारण दूसरा है। यह सर्वकालिक कारण है और भाजपा की हार में हमेशा प्रमुख भूमिका में रहता है। भाजपा में भाजपा के कार्यकर्ता शायद ही पांच प्रतिशत से ज्यादा हों। हर कार्यकर्ता जिले के किसी नेता का है। जिले का हर नेता भाजपा के किसी प्रादेशिक नेता का कार्यकर्ता है। हर प्रादेशिक नेता किसी राष्ट्रीय नेता से जुड़ा है। और उत्तर प्रदेश में तो राष्ट्रीय नेताओं की फौज है। लेकिन इन राष्ट्रीय और प्रादेशिक नेताओं में बामुश्किल पांच ऐसे हैं जो लोकसभा या विधानसभा का चुनाव अपने दम पर जीत सकते हों। जनाधार विहीन नेताओं की इतनी लंबी फौज है कि हर विधानसभा क्षेत्र में दस दस टिकट के दावेदार होते हैं। हर खेमा अपने कार्यकर्ता को टिकट दिलाने के लिए साम दाम दंड भेद सारे अस्त्र अपनाता है। फिर जो टिकट हासिल कर लेता है उसे हराने के लिए बाकी खेमे के कार्यकर्ता सारे हथकंडे अपनाते हैं। वे यह तो चाहते हैं कि सरकार भाजपा की बने लेकिन हमारे क्षेत्र का उम्मीदवार हार जाए। जहां का उम्मीदवार मजबूत होता है उनसे पार पाकर जीत जाता है। जहां थोड़ा भी कमजोर हुआ हार जाता है। लोकसभा चुनावों में मोदी ने अपील की थी कि आपका हर वोट सीधा मुझे मिलेगा, मतदाताओं ने उम्मीदवार नहीं देखे। मोदी को सीधे वोट किया। मोदी का आभामंडल ऐसा था कि चाहकर भी विरोधी खेमे के नेता उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाए। सो दिखावे के लिए ही सही। प्रचार में जुटे रहे। विधानसभा के उपचुनावों में ऐसा नहीं था।
मंगलवार, 16 सितंबर 2014
ताकि मैं फिर न रोऊं
दो खबरों ने आज बहुत दुखी किया। दोनों आत्महत्या की। गुजरात में आठवीं कक्षा में पढ़ने वाले एक बच्चे ने तो पंजाब में एक छात्रा ने जान दे दी। दोनों ही घटनाओं में सुसाइड नोट मिला है। बच्चे ने जहां अपने शारीरिक शिक्षक के उत्पीड़न का जिक्र करते हुए लिखा.. ‘पापा, मेरी आखिरी इच्छा है कि आप पीटी वाले अर्जुन सर के गाल पर 10-20 थप्पड़ मारना’। इतना ही नहीं, बच्चे ने जिस पेन से सुसाइड नोट लिखा, उसी पेन से अपने हाथ पर टीचर का नाम (अर्जुन) भी लिख रखा था। छात्रा ने लिखा है- मुझे माफ करना पिताजी। आपने मेरी फीस देने के लिए घर की कनक (गेहूं) बेची है। मैं मरने जा रही हूं। मैं आप पर बोझ नहीं बनना चाहती।
इन दोनों खबरों को पढ़ने के बाद बहुत देर तक रोता रहा। सोचता रहा। ये सिलसिला कब रुकेगा। कैसे रुकेगा।
रुक सकता है। एक बात जो मैं अभिभावकों से कहना चाहता हूं।
सूरत शहर में रहने वाले कक्षा आठ के छात्र ने अपनी जान इस वजह से दे दी क्योंकि उसकी शारीरिक शिक्षक उसकी अनायास पिटाई करता था। सूरत के इस बच्चे की नजर में भले ही शारीरिक शिक्षक की पिटाई अनायास रही हो लेकिन मेरा मानना है कि शिक्षक जो भी करता था सायास करता था। शारीरिक शिक्षा ऐसा विषय नहीं है जिसमें होमवर्क करना पड़ता हो कुछ याद करना पड़ता हो। शिक्षक बच्चे से कुछ और चाहता रहा होगा। बच्चा तो बेचारा बच्चा ठहरा। जब अति हो गई तो उसने खुद को खत्म करने के लिए फैसला कर लिया। उस शिक्षक को फांसी होनी चाहिए। इससे कम कोई सजा नहीं। इस दुखद घटना से उन अभिभावकों को भी सचेत होना पड़ेगा, जिनके बच्चे स्कूल जाते हैं। ध्यान दें कि आज स्कूल गुरुकुल नहीं है और उनके शिक्षक ऋषि नहीं हैं। निजी स्कूलों के ज्यादातर शिक्षक -शिक्षिकाएं वे युवक और युवतियां जिनका बौद्धिक स्तर ऐसा नहीं रहा कि पढ़लिख कर कुछ बन सकें। सो बेरोजगारी दूर करने के लिए निजी स्कूलों में नौकरी कर ली। शिक्षिकाओं को प्रबंधन के लोग शोषण करते हैं तो शिक्षक बच्चियों का, बच्चों का। ऐसी घटनाओं के समाचार रोज छपते हैं। दुखद तो यह है कि इस तरह के समाचारों को पढ़कर भी हम सबक नहीं लेते। बच्चा स्कूल जाने लगे तो उससे रोज बात करें। खासतौर से स्कूल के माहौल पर। उसके शिक्षक-शिक्षिकाओं के बारे में। उनके आचरण के बारे में। इतना हीं नहीं। अपने मित्रों, पड़ोसियों, रिश्तोंदारों के व्यवहार और आचरण के बारे में भी उससे चर्चा करें। पूछें। कौन उसे अच्छा लगता है। कौन खराब है। अच्छा लगता है तो क्यों। उसे गुड टच बैड टच यानी स्नेहिल स्पर्श और कुटिल स्पर्श के अंतर के बारे में बताएं। निस्संकोच और बेझिझक होकर। अगर उस बच्चे के साथ अभिभावकों ने संवादहीनता न बरती होती तो मासूम जान देने का फैसला न लेता। और मुझे रोना न पड़ता।
अब एक बात बच्चियों से
डाइट में ईटीटी का कोर्स कर रही जालंधर में रहने वाली जिस बेटी ने जान दी, उससे कहना चाहता हूं। उसके जरिए हर बेटी से कहना चाहता हूं। तुमने मां बाप की मजबूरी देख खुद को खत्म कर लिया। क्यों। पढ़ने के बाद नौकरी मिलती। नहीं मिलती। तुमने खुद को बोझ क्यों समझा। तुम्हें तो सहारा समझना बनना चाहिए थे। बहुत सी बेटियां ट्यूशन कर मां बाप की मदद करती हैं। तुम भी वैसा ही कुछ सोचती। तुमने सिर्फ इसलिए जान दे दी कि मां ने घर में रखा वह गेहूं बेच दिया जो सरकार गरीब परिवारों को देती है। अब खांएगे क्या। बाप मजदूरी करता है। मजबूर है। तो तुम क्यों मजबूर हो गई। नहीं तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था। तुम्हें संघर्ष का रास्ता अख्तियार करना चाहिए था। पलायन का नहीं। मेरी बच्ची तुमने बहुत गलत किया। पर मेरी बच्चियों आप कभी ऐसा न सोचना। ताकि मैं फिर कभी न रोऊं।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)