बुधवार, 17 सितंबर 2014

उत्तर प्रदेश के चुनावों में इसलिए हारी भाजपा

उपचुनावों के दौरान भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को सिर्फ 12 सीटें मिलीं। निश्चित रूप से परिणाम भाजपा की अपेक्षा के अनुकूल नहीं हैं। लेकिन वास्तविकता यह भी नहीं है कि लोग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार से निराश हो चुके हैं। लोगों का मोदी से मोहभंग नहीं हुआ है। मोदी उनकी निगाह में आज भी नायक हैं। तो भाजपा हारी क्यों। बाकी प्रदेशों में क्या कारण रहे होंगे। मैं नहीं जानता। क्योंकि मैं वातानुकूलित कक्ष में बैठकर लिखने वाला धाकड़ लिक्खाड़ नहीं हू। मेरे ज्ञान चक्षु ऐसे नहीं हैं कि जहां के बारे में न जानता हूं, जहां के राजनीतिक वातावरण से परिचित न हूं, वहां के बारे में भी इस तरह दावे करूं, इस तरह लिखूं कि जैसे मैंने उस क्षेत्र के लोगों की सोच, समस्याओं और अपेक्षाओं के बारे में पीएचडी कर रखी हो। इसलिए मैं केवल उत्तर प्रदेश के बारे में बात करूंगा। उत्तर प्रदेश में भाजपा को तीन और समाजवादी पार्टी को आठ सीटें मिली हैं। जिन तीन सीटों पर भाजपा जीती है, तीनों शहर की सीटे हैं। शहर की सीटों पर सपा केवल वहीं जीत पाती है, जहां मुस्लिम आबादी तीस प्रतिशत से ज्यादा हो। वैसी स्थिति में सपा प्रत्याशी को मुस्लिम मतों के साथ यादव मतों का सहारा मिल जाता है। हालांकि आजमगढ़, एटा, इटावा और मैनपुरी को छोड़ दें तो उत्तर प्रदेश के किसी भी शहर में यादवों की आबादी तीन फीसदी से ज्यादा नहीं है। पर मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में मतो के बंटवारे के कारण लगभग 33 फीसदी मत हासिल कर सपा प्रत्याशी जीत जाता है। उन शहरों में जहां मुस्लिम आबादी बीस से पचीस फीसदी है अगर वहां सपा वैश्य प्रत्याशी पर दांव लगाती है तो उसे सफलता मिल जाती है। रही बात ग्रामीण सीटों की तो इस बार सपा और भाजपा दोनों ने जातीय समीकरणों को ध्यान में रख प्रत्याशी उतारे थे। उदाहरण के लिए रोहनिया और निघासन। दोनों जगह दोनों पार्टियों के उम्मीदवार कुर्मी थे। सपा उम्मीदवार को यादव और मुस्लिम वोट टूटकर पड़े। कुर्मी वोटों का बंटवारा हुआ। सवर्ण मतदाताओं में बड़ी संख्या में लोग यह सोचकर मत देने नहीं गए कि इस चुनाव से कोई असर नहीं पड़ने वाला है। जो वोट देने चले भी गए , उनके घर की महिलाओं ने जाने की जहमत उठाना मुनासिब नहीं समझा। ऐसा लगभग हर सीट पर हुआ। जाहिर है भाजपा प्रत्याशियों को तो हारना ही था। लेकिन सिर्फ यही कारण नहीं। भाजपा प्रत्याशियों की हार का सबसे बड़ा कारण दूसरा है। यह सर्वकालिक कारण है और भाजपा की हार में हमेशा प्रमुख भूमिका में रहता है। भाजपा में भाजपा के कार्यकर्ता शायद ही पांच प्रतिशत से ज्यादा हों। हर कार्यकर्ता जिले के किसी नेता का है। जिले का हर नेता भाजपा के किसी प्रादेशिक नेता का कार्यकर्ता है। हर प्रादेशिक नेता किसी राष्ट्रीय नेता से जुड़ा है। और उत्तर प्रदेश में तो राष्ट्रीय नेताओं की फौज है। लेकिन इन राष्ट्रीय और प्रादेशिक नेताओं में बामुश्किल पांच ऐसे हैं जो लोकसभा या विधानसभा का चुनाव अपने दम पर जीत सकते हों। जनाधार विहीन नेताओं की इतनी लंबी फौज है कि हर विधानसभा क्षेत्र में दस दस टिकट के दावेदार होते हैं। हर खेमा अपने कार्यकर्ता को टिकट दिलाने के लिए साम दाम दंड भेद सारे अस्त्र अपनाता है। फिर जो टिकट हासिल कर लेता है उसे हराने के लिए बाकी खेमे के कार्यकर्ता सारे हथकंडे अपनाते हैं। वे यह तो चाहते हैं कि सरकार भाजपा की बने लेकिन हमारे क्षेत्र का उम्मीदवार हार जाए। जहां का उम्मीदवार मजबूत होता है उनसे पार पाकर जीत जाता है। जहां थोड़ा भी कमजोर हुआ हार जाता है। लोकसभा चुनावों में मोदी ने अपील की थी कि आपका हर वोट सीधा मुझे मिलेगा, मतदाताओं ने उम्मीदवार नहीं देखे। मोदी को सीधे वोट किया। मोदी का आभामंडल ऐसा था कि चाहकर भी विरोधी खेमे के नेता उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाए। सो दिखावे के लिए ही सही। प्रचार में जुटे रहे। विधानसभा के उपचुनावों में ऐसा नहीं था।

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