रविवार, 28 जुलाई 2013

अध्ययनशील हैं दिग्गी राजा

आप में से कितने लोग बता सकते हैं कि टंच किस भाषा का शब्द है। मुझे यह शब्द न हिंदी के शब्दकोश में मिला न इंग्लिश की डिक्शनरी में। रही बात माल की तो वह तो नजरिए की बात है। दिग्गी साहब राजा हैं उनके लिए महिलाएं माल हो सकती हैं। वैसे ही जैसे सड़क पर अपनी आवारागर्दी का सगर्व प्रदर्शन करने वालों के लिए होती हैं। अब टंचमाल को लेकर आप दिग्गी राजा की चाहे जितनी आलोचना करें लेकिन यह तो मानना ही पड़ेगा कि वह अध्ययनशील हैं। ऐसा नहीं कि मैं टंच का मतलब नहीं जानता हूं। वयस्क होते होते जानने लगा था कि टंच माल के मायने क्या होते हैं। दरअसल,बड़ी कक्षाओं में पढ़ने वाले मेरे कुछ बड़े भाई अकसर युवतियों को देखकर यह टिप्पणी कर देते थे- यार माल टंच है। हालांकि ऐसा मौका मेरे सामने कभी नहीं आया कि किसी युवती ने अपने ऊपर की गई टिप्पणी को सुना हो और टिप्पणीकार का सैंडिल स्वागत किया हो। हां कई बार यह जरूर लगा कि बड़े भाइयों की टिप्पणी को सुनने के बावजूद युवती ने उसे अनसुना कर दिया। खैर मैंने एक दिन एमजीएस में पढ़ने वाले अपने गांव के एक बड़े भ्राता से टंच माल का मतलब पूछा तो वह मेरी अज्ञानता पर हंसने लगे। जो उन्होंने बताया उसका मतलब था कि कसी हुई देहयष्टि वाली युवती टंच माल होती है। तब तक हम २४ साल के २४ कैरेट के ब्राह्मण तो नहीं हुए थे लेकिन सोलह साल के सोलह आने खाटी सुलतानपुरी तो बन ही चुके थे। सो हमने पूछ लिया भइया यह अंग्रेजी का शब्द है या हिंदी का। वह चकरा गए। बोले-यह तो मैं नहीं जानता, लेकिन पढ़ा एक हिंदी की किताब में ही है। मैंने फिर पूछा कौन सी किताब में तो उन्होंने मुझे झिड़क दिया। मैंने भी कह दिया-ठीक है न बताएं। लेकिन मैं भी घर पहुंचकर भौजी को आपकी टंच माल की जानकारी दे दूंगा। आपको बता दें कि उस समय मेरे कॉलेज में इंटर में पढ़ने वाले अस्सी फीसदी छात्र शादीशुदा थे। इंटर ही क्यों हाईस्कूल में पढ़ने वाले साठ फीसदी छात्र भी शादीशुदा थे। इन्हीं में से एक मैं था। वैसे हमारे गांव के सारे लड़के एमएसवी यानी मधुसूदन विद्यालय इंटर कॉलेज में पढ़ते थे। पर मैं और भइया एमजीएस में थे। एमजीएस यानी महात्मा गांधी स्मारक इंटर कॉलेज। एक जीआईसी था यानी राजकीय इंटर कॉलेज पर मेरे गांव का कोई लड़का उस समय तक इतना बदतर नहीं था कि सरकारी कॉलेज में पढ़े। सुलतानपुर शहर में उस समय तक यही तीन इंटर कॉलेज थे। खैर बात भइया की हो रही थी। भइया का मेरी धमकी पर कोई असर नहीं पड़ा और न ही मैंने भौजी से टंचमाल के बारे में बताया। बताता भी कैसे। कोई थी ही नहीं। वह तो बस जुबानी जमाखर्च करते थे सड़क पर। लेकिन एक दिन मैंने अपने अथक प्रयास से एक ऐसी पुस्तक हासिल कर ली,जिसमें टंच माल के बारे में विस्तार से बताया गया था। पुस्तक के लेखक मस्तराम थे। तब मेरे ज्ञानचक्षु खुले और मैंने जाना कि टंच शब्द के जनक कौन थे और इसका उद्भव कहां से हुआ। अब टंचमाल को लेकर आप दिग्गी राजा की चाहे जितनी आलोचना करें लेकिन यह तो मानना ही पड़ेगा कि वह अध्ययनशील हैं और मस्तराम को उन्होंने न सिर्फ पढ़ा है बल्कि याद भी रखा है।

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