बुधवार, 9 अक्तूबर 2013

परशुराम की खुदकुशी

धर्म ने पूछा-जगत गुरू आपके भीतर का परशुराम कहां गया। जगत गुरू बोले- वत्स, परशुराम ने खुदकुशी कर ली। ताकि उसकी औलादों में परशुराम के गुणसूत्र न पनपने पाएं। धर्म ने पूछा-क्या ऐसा हो पाएगा। जगत गुरू कुछ सोचते हुए बोले-मुश्किल है। लेकिन उन्हें ऐसा करना ही होगा। धर्म ने हंसते हुए कहा-आपकी तरह। जगत गुरू गंभीर हो गए-हां वत्स। लेकिन सिर्फ हमारी तरह नहीं। ऐसा युगों से होता आया है। खुद परशुराम को भी अपने भीतर के परशुराम को मारना पड़ा था। धर्म की उत्सुकता बढ़ गई। उसने पूछा-कैसे। जगत गुरू बोले-वत्स परशुराम को ही नहीं धर्म को भी अपने भीतर के धर्म को मारना पड़ेगा। अब धर्म के चौंकने के बारी थी। उसने कहा-आदरणीय बात को जलेबी की तरह घुमा क्यों रहे हैं। सीधे सीधे समझाइए। जगतगुरू शुरू हो गए वत्स, देखो द्रोणाचार्य परशुराम के शिष्य थे। परशुराम चाहते थे कि द्रोणाचार्य भी आश्रम में समाज के सभी तबके लोगों को शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा दें। द्रोणाचार्य ने वही किया। लेकिन उन्हें मिला क्या। बेटे अश्वतथामा के लिए दूध तक का अरेंजमेंट नहीं कर पा रहे थे। आटे का घोल पिलाना पड़ता था। वह खुद भूखे सो सकते थे लेकिन औलाद को भूखा नहीं रख सकते थे। यह पीड़ा हर बाप की है। सो उन्होंने अपने भीतर के परशुराम की हत्या कर दी। समाज के प्रभुवर्ग की गुलामी स्वीकार कर ली। उनके बेटे को दूध भात मिलने लगा। यह अलग बात है कि इसकी कीमत देश को एक नायाब धनुर्धर एकलव्य को खोकर चुकानी पड़ी। सीधे सीधे कहें तो यह एक संतान के लिए दूसरी संतान - शिष्य संतान ही होता है- के वध करने जैसा ही था। यानी संतान द्रोह और देश द्रोह दोनों ही। वत्स, समाज का प्रभुवर्ग ऐसे ही गुरुओं को,योद्धाओं को, विद्वतजनों को चाहता है जो उसके हर अनुचित काम को उचित सिद्ध करने में अपनी ऊर्जा और विद्वता का इस्तेमाल करें, और उनके वर्ग में शामिल हो कर समाज के उस वर्ग के उत्पीड़न और शोषण में हाथ बटाए, जिस वर्ग से वह खुद आते है। सामाजिक सरोकारों वाले परशुराम उसे नहीं चाहिए। अगर कोई बनने की कोशिश भी करेगा तो प्रभुवर्ग ऐसी परिस्थितियां पैदा कर देगा कि वह खुदकुशी करने पर मजबूर हो जाए। धर्म ने कहा- जगत गुरू अब मैटर सीरियस हो गया। कुछ कुछ अपनी खोपड़ी भी चलने लगी है। अब धर्म की आत्महत्या वाली बात पर कुछ लाइट फोकस कर दें। जगत गुरू बोले- वत्स, धर्म तो कब का सुसाइड कर चुका है। धर्म तो वह होता था, जिसमें लोक कल्याण निहित हो। लेकिन लोककल्याण से रोटी नहीं मिलती। यह उसने द्रोणाचार्य के हश्र से ही सीख लिया था। अब तो धर्म वही है जिसके पालने से निज हित हो। वकील का धर्म है-हर हाल में अपने लुटेरे, बलात्कारी, भ्रष्टाचारी क्लाइंट को बचाना। पत्रकार का धर्म है-ऐसी खबरें कतई न छापना जिससे उसके संस्थान का अहित होता हो। नेता का धर्म है-अपनी पार्टी के वोट बैंक को सुरक्षित रखना। भले ही इसके लिए जातीय और मजहबी दंगों में जानें लेनी पड़ें। धर्म की समझ में बात आ गई शायद। इसीलिए उसने अगला क्वेशचन करने से परहेज किया। जगत गुरू ने आंखों ही आंखों में उससे अगला क्वेशचन करने को कहा। लेकिन उसने चरण स्पर्श करते हुए विदा ले ली।

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