बुधवार, 24 अप्रैल 2013
कभी शूतर्क भी जरूरी हो जाता है
तर्क कई तरह के होते हैं। सुतर्क भी होता है और कुतर्क भी। दरअसल सुतर्क उनके लिए होता है जिनके तर्कों से आप प्रभावित नहीं होते बल्कि उनके तर्कों को अपने सुतर्कों से काट कर आप उन्हें प्रभावित करना चाहते हैं। स्वस्थ बहस ऐसी ही होती है। लेकिन कुछ लोग आपके तर्कों को अपने कुतर्कों से काटते हैं। तब। उस स्थिति में आपके सामने सिर्फ एक तर्क का सहारा रह जाता है। वह होता है शूतर्क। शूतर्क की परंपरा कब शुरू हुई, यह तो हम नहीं जानते लेकिन इतना जानते हैं कि यह सदियों से चली आ रही है। आधुनिक काल में इसका उदाहरण पेश किया था, राजा भैया ने। राजा भैया यानी रवींद्र प्रताप सिंह, जिन्होंने सन 77 में अमेठी से संजय गांधी को पराजित किया था। ईमानदार राजनेता थे। 26 की उम्र में पहली बार विधायक बने और जब 77 में लोकसभा लड़े तो उनके पास निजी वाहन के नाम पर सिर्फ एक जावा मोटरसाइकिल थी। सांसद बने लेकिन औरों की तरह नहीं लूट कर घर भर लें। ईमानदार बने रहे सो बाद में फिर से सुलतानपुर कचहरी में वकालत करने लगे। एक जज साहब के यहां उनके एक मुवक्किल की जमानत की अरजी लगी थी। जज साहब ने कुतर्क देते हुए खारिज कर दी। साथ में टिप्पणी की-आप सुबह वरुणा एक्सप्रेस से लखनऊ हाईकोर्ट चले जाएं (वरुणा उस समय नई नई चली थी, वाराणसी से लखनऊ तक)। फिर क्या था। राजा भैया भड़क गए। जूता निकाला और सीधा फेंक कर मारा जज साहब पर। बोले मैं तो हवाई जहाज से दुनिया घूम चुका हूं। तुम वरुणा पर बैठने को तरस रहे हो। मैं नहीं। तो यह था हमारे राजा भैया का कुतर्क के जवाब में शूतर्क। वैसे उनके तर्क भी जानदार होते थे। 77 में उन्होंने संजय गांधी को हराया। 80 में वह हार गए। मतगणना के बाद जब वह बाहर निकले तो कांग्रेसी जोर जोर से नारे लगाते हुए डांस करने लगे। राजा भैया पहुंच गए उनके बीचे। बोले- कांग्रेसियों एक बार मैंने पटका एक बार तुम जीते। फाइनल अभी बाकी है। अगले चुनाव में होगा। अभी मत नाचो। हालांकि फाइनल नहीं हो पाया क्योंकि संजय जी की एक विमान दुर्घटना में मौत हो गई।
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जय हो!
जवाब देंहटाएंगजब का शूतर्क है सर। लगता है, आज इसी की जरूरत है। कुतर्कों का यही इलाज होना चाहिए।